
लखनऊ के खाने में कोई दम नही है, बेकार,फ़ालतू ही मशहूर है । पता नही यह लोग सेंट अपने बदन में लगाने की जगह चिकेन में क्यों लगा देते हैं । चांदी पहनने की जगह शीरे में डूबी ब्रेड पर क्यों चिपका देते हैं । और भाई बिरयानी,उसकी तो बात ही न करो । अजीब फीकी फीकी,मुर्ग़े-बकरे भी अपनी शहादत पर अफ़सोस करे कि सिर्फ रंगीन चावलों के लिये जान ले ली । मीठी मीठी रंगीन रोटी,जिसे शीरमाल कहते नही थकते,इलाइची लौंग में नहाए कत्थई भूरे काले कवाब,ऊपर से इनकी तारीफ़ करते लोग ।
पता नही यूनेस्को ने क्या देखा और क्यों लखनऊ को खाने और तहज़ीब को जगह दे दी । जगह क्या ख़ाक़ दी,सर्टिफिकेट दे दिया । यूनेस्को वाले “इन्हीं लोगों ने…वाली उमराव जान के घुंघरुओं में फंसकर यह सर्टिफिकेट दे गए । वरना लखनऊ में कुछ ख़ास नही है ।
आप आइये हमारे शहर,तब आपको खिलाएं
गुड्डू बिरयानी,लल्ली नहारी,शकूरे भाई के कवाब,मुश्शन का ज़र्दा,बुन्दे भाई का सालन, टिल्लू की ख़्मीरी और मट्टू की मोटी मोटी शीरमाल । यह होना चाहिए था यूनेस्को में मगर लखनऊ वालों ने फंसा लिया ।
अब इन बातों पर सिर्फ हंसा जा सकता है । जो अपने खानों के नाम तक नही रख सकते,वह लखनऊ के खाने पर हसद में तनक़ीद कर रहे हैं । उन्हें कौन बताए कि पुलाव को बिरयानी कहने में कोई फ़र्क़ नही पड़ता, फ़र्क़ तो बिरयानी में कब्र के बनगो (लकड़ी के पटरे जो कब्र में रखे जाते हैं) की तरह खड़े मसाले डालने से पड़ता है । सालन में झेलम का पानी उड़ेलने से यूनेस्को नही आता । ब्रेड को शक्कर के घोल में डालने से शाही टुकड़े नही बनते और मोटी मोटी दरियाई घोड़े जैसी रोटी पर तिल्ली चिपकाने से शीरमाल नही बन जाती है ।
यूनेस्को देखता है कि खाना बनाए हो या चारा,हालांकि उससे पहले हम जैसे लोग भी देखते हैं कि हरी मिर्चें भर भर कर चावल खड़े किए हैं या मुहब्बत से पुलाव,ओह बिरयानी…बनाए हो । मेरा तो बस इतना कहना है कि खाना तो बनाना छोड़िए,पहले खिलाने की तहज़ीब ही देख लीजिए । हालांकि लखनऊ के करीब के एक शहर को सिर्फ पान-मसाले के लिये ही सर्टिफिकेट दे देना चाहिए । वह मसाला खाते, बनाते,थूकते सब हैं, उनकी इस तहज़ीब को भी नज़रअंदाज़ नही करना चाहिए । मुँह में रजनीगंधा, तो कहाँ से आए ज़ायक़ा…
लखनऊ में तो मरहूम मुर्ग की भुनी टांग को नँगा नही देते । उसके घुटने के नीचे सिल्वर फवाईल लपेट देते हैं । ताकि मरहूम मुर्ग के लिए बेशऊरी न हो और इंसान की उंगलियां भी उससे उलझें न…यार लखनऊ में खाना सिर्फ बनता नही,सिर्फ पकता नही,सिर्फ तैयार नही होता है । बल्कि पूरी एक तहज़ीब के साथ उसे आपके सामने लाया जाता है । चीनी की प्लेटों में सजाया जाता है । नेपकिन का स्कार्फ पहनाया जाता है । बहुत ही सधे हुए अंदाज़ में आपको उसे महसूस करने के लिए लाया जाता है ।
मगर यह भी सच है कि अख़बार में लिपटे कबाब रोल,पेड़ के पत्तों में रखी चाट और स्टील की गहरी प्लेट में डूबी नहारी भी उतनी ही ज़ायकेदार है और यह बिना किसी नफ़ासत, नज़ाक़त,मोहब्ब्त और तहज़ीब के बाकी जगह के खानों पर भारी है । लखनऊ के ठेले खोमचे भी जो ज़ायक़ा रखते हैं, वह दूसरी जगह महंगे होटलों में नही है ।
लखनऊ के खाने को कुछ मत कहिएगा,वरना….यह कभी नसीब नही होगा और आपका ज़मीन पर आना ही फ़िज़ूल कहलाएगा, समझे ।
यूनेस्को के साथ हमारी बात भी मानिए,लखनऊ जैसा कहीं कुछ नही,यहां खाने में खुशबू होती है ताकि मरहूम बकरे और मुर्गे की रूह जन्नत में खुशी खुशी टहल सकें । चाट और पानी के बताशे,…क्या क्या गिनाए,जलने वाले और रोस्टेड हो जाएंगे,खुद पर नींबू छिड़क लेंगे,इसलिए बस इतना कि लखनऊ का खाना और लखनऊ,अपने आप में अलग और बेहतरीन है….
चलते हैं,
अमा भाई थोड़ी तरी दीजियेगा
